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इश्क़ वो आग है, जो महबूब के सिवा सब कुछ जला डालती है…फ़िरदौस ख़ान

Firdaus Diary
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tasbeeh

-फ़िरदौस ख़ान
अल इश्क़ो नारून, युहर्री को मा सवीयिल महबूब…
यानी इश्क़ वो आग है, जो महबूब के सिवा सब कुछ जला डालती है…

इश्क़ वो आग है, जिससे दोज़ख भी पनाह मांगती है… कहते हैं, इश्क़ की एक चिंगारी से ही दोज़ख़ की आग दहकायी गई है… जिसके सीने में पहले ही इश्क़ की आग दहकती हो उसे दोज़ख़ की आग का क्या खौफ़…

जब किसी से इश्क़ हो जाता है, तो हो जाता है… इसमें लाज़िम है महबूब का होना (क़रीब) या न होना… क्योंकि इश्क़ तो ‘उससे’ हुआ है…उसकी ज़ात (अस्तित्व) से हुआ है… उस ‘महबूब’ से जो सिर्फ़ ‘जिस्म’ नहीं है… वो तो ख़ुदा के नूर का वो क़तरा जिसकी एक बूंद के आगे सारी कायनात बेनूर लगती है… इश्क़ इंसान को ख़ुदा के बेहद क़रीब कर देता है… इश्क़ में रूहानियत होती है… इश्क़, बस इश्क़ होता है… किसी इंसान से हो या ख़ुदा से…

हज़रत राबिया बसरी कहती हैं- इश्क़ का दरिया अज़ल से अबद तक गुज़रा, मगर ऐसा कोई न मिला जो उसका एक घूंट भी पीता. आख़िर इश्क़ विसाले-हक़ हुआ…

बुजुर्गों से सुना है कि शायरों की बख्शीश नहीं होती…वजह, वो अपने महबूब को ख़ुदा बना देते हैं…और इस्लाम में अल्लाह के बराबर किसी को रखना…शिर्क यानी ऐसा गुनाह माना जाता है, जिसकी मुआफ़ी तक नहीं है…कहने का मतलब यह है कि शायर जन्नत के हक़दार नहीं होते…उन्हें दोज़ख़ (जहन्नुम) में फेंका जाएगा… अगर वाक़ई ऐसा है तो मुझे दोज़ख़ भी क़ुबूल है…आख़िर वो भी तो उसी अल्लाह की तामीर की हुई है…जब हम अपने महबूब (चाहे वो काल्पनिक ही क्यूं न हो) से इतनी मुहब्बत करते हैं कि उसके सिवा किसी और का तसव्वुर करना भी कुफ़्र महसूस होता है… उसके हर सितम को उसकी अदा मानकर दिल से लगाते हैं… फिर जिस ख़ुदा की हम उम्रभर इबादत करते हैं तो उसकी दोज़ख़ को ख़ुशी से क़ुबूल क्यूं नहीं कर सकते…?

बंदे को तो अपने महबूब (ख़ुदा) की दोज़ख़ भी उतनी ही अज़ीज़ होती है, जितनी जन्नत… जिसे इश्क़ की दौलत मिली हो, फिर उसे कायनात की किसी और शय की ज़रूरत ही कहां रह जाती है, भले ही वो जन्नत ही क्यों न हो…

जब इश्क़े-मजाज़ी (इंसान से इश्क़) हद से गुज़र जाए तो वो ख़ुद ब ख़ुद इश्क़े-हक़ीक़ी (ख़ुदा से इश्क़) हो जाता है… इश्क़ एक ख़ामोश इबादत है… जिसकी मंज़िल जन्नत नहीं, दीदारे-महबूब है…

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